Sunday, January 16, 2011

पलाश के फूल


तन्हा कभी बैठे,
ख़ुद में ग़ुम,
किसी किताब को सीने से लगाए,
जब भी पढ़ने का नाटक किया है...
दूर कहीं खिड़की से झांकते मैंने तुम को पाया है.

चाय का प्याला, या हो कप कॉफी का,
कॉपी-कागज़ बिखरे मेरे आस पास,
पेंसिल कहीं मेरे बलों में ग़ुम,
पेन को कभी ऊँगलियों पे घुमाया तो कभी दांत में दबाया है...
उस वक्त भी हर चुस्की में मैंने तुम को पाया है.

कमरे के किसी कोने में दुब्बक के बैठे देख,
जब भी खिड़की कि ग्रिल से झन कर
चाँद कि जवानी मुझसे मिलने आई है,
चमकीला सा इक रोशन पल हर बार मेरे पास इत्मिनान से ठहरा है...
चौंधयाई आँखों से उस पल में भी मैंने तुम को पाया है.

एक रोज़ चलते-चलते मैं, पिछली गली इक जा पहुंची,
सुनसान सा रास्ता था, मंज़र दूर धुंधला सा दीखता था
ऊँचे-ऊँचे खम्बे थे बस, टीम-टीम करती बत्ती वाले,
साया भी कंबख्त उस दिन कभी आगे - कभी पीछे फिरता था.
चकाचौंध रौशनी में फिर, मेरा साया तो कभी मिला नहीं...
तम के वीराने में उस दिन मैंने तुम को पाया है.

तुम्हारे घर के आँगन में, इंतजार करती बैठी हूँ,
केसरी सा आँगन तुम्हारा, केसरी सी छत है दिखती.
केसरी सी इस शाम में समझो, छाव भी केसरी-सी जान पड़ती है यहाँ.
मेरे पलाश...
माथे पे उगते केसरी सूरज कि धुप में आज फिर......
मैंने तुम को पाया है.