Wednesday, June 24, 2015

बूंद-बूंद

ख़ुश्बू फ़िज़ा में एक घुली सी,
धुंद नज़र में कुछ जमी सी है, 
बूंदें टपकी हैं पलकों से गलों पर, 
आँख नम है, पर उदास नहीं,
पेशानी को चूमती है, कभी रूह को भीगती है 
हाथों की लकीरों को सोकति,
पगडंडी हो कोई जैसे गीली सी एक नदी किनारे, 
महकति ये हवा झोंकों में कुछ बोलती है,
गुच्छे गुलमोहर के लटकते हैं कंही, कंही ग़ुलाबी सी चादर है बोगन की 

कई बार ज़हन में ख्याल आता है ये,
पहली बारिश है ये, या महोब्बत तुम्हारी,
तार-तार भिगति
बूंद-बूंद महकती 


Wednesday, January 7, 2015

धूप

मरहूम इरादे हैं कुछ,
कुछ कतरे अरमानों के,
उधड़े टाँके कुछ हैं,
कुछ अफ़सोस भी बाकी हैं...

सूख चुके हैं सब,
यतीम से लव्ज़ कुछ,
कुछ बेलव्ज़ सी बात-चीत,
रूठी सी किस्मत और चारपाई  के किनार पे बैठी मोहब्बत

आज मौका बड़ा अच्छा है,
रात कुछ ज़्यादा सर्द है, कोहरा कुछ ज़्यादा घना है...
पीछे चौक में सब रखा है तैयार कर-कर,
आज इनकी ही तापनी करते हैं...कुछ आग सेकते हैं.

सेहर होगी उसी ताप से...एक नई सेहर...
मूढ़ों पर बैठे वहीँ, सुबह की धूप भी सेकेंगे.
खुश्क धूप...एक नई सुबह की कोसी सी धूप.