Thursday, October 18, 2012

ऐयाशी

आज थोड़ी सी ऐयाशी की मोहलत मांगी है, 

पांव में घुंघरू, नज़र में प्यास लौटी है,
होंटों पे इक गाली है,
नज़र भी बेशर्म सी, गिरती नहीं, सब तकती रहती है,


आज थोड़ी सी ऐयाशी की मोहलत मांगी है,

अँधेरे से दोस्ती कुछ और गहरी होती जाती है,
यारों में उठने-बैठने की वजह ही बेवजह सी होती जाती है,

रौशनी में आँखे मलने का वक्त भी बड़ा बेवक्त है

आज थोड़ी सी ऐयाशी की मोहलत मांगी है,

लिहाफ़ तो छुटा कांहीं,
जुटी भी कंही छुटी है,
दुपट्टा एक बाकि है, थोड़ा ढलका, थोडा संभला है,


आज थोड़ी सी ऐयाशी की मोहलत मांगी है,

प्यालों से प्याले टकराने की ये ज़िद बड़ी कमज़र्फ है,
लड़खड़ाते कदम भी बात कोई सुनते नहीं, कम्बक्त हैं,
बेसुरिलों की गजलें, नज़्में हाय! सब गुन्गुनानी हैं,


आज थोड़ी सी ऐयाशी की मोहलत मांगी है,

की सवेरा होते होते कांहीं गुम जाए,
की याद पिछली बात कोई भी न आए,
आज में, अब में, बस यंहीं कंही में सब रुक जाए




आज खुद की रातों से एक रात उथार मांगी है,
आज थोड़ी सी ऐयाशी की मोहलत मांगी है।