घंटों तक आगोश में उसके बैठे....
रंग दुनिया का कुछ अलग ही दीखता है
हर चीज़ धीमी...हर लम्हा रुका सा लगता है
इतराना भी सीख लिया मैंने...आँखे मटकाना, कभी ज़ुल्फ़ झटकना
अदाएं ये भी आती हैं, भूल गई थी मै...
माशूक नया है तो क्या हुआ...
सिलसिला-ए-इश्क तो पुराना है
दास्ताँ दिलों कि ये कंहाँ बदलती है...
मै मै ही रहती हुं...तुम तुम ही रहते हो!
लिल्लाह, इतनी रूमानियत पहले तो कभी नहीं देखी.
ReplyDeleteबहुत खूब. नज्मों के नगमें बरसाती रहा करें.
Hi Mihir...!
ReplyDeleteThank you so much!
Do see the other posts on the blog! will love to read some feedback!
good one.
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