Tuesday, January 12, 2010

मैंने कल को देखा है...
कभी मेज़ पे धुल में खांसते,
तो कभी दिवार पे अपने पड़ोसी से गप करता.
कभी भरे बाज़ार में भी आ मिलता है,
मेरे पुराने बटुए के एक कोने से...कंही किसी पुराने नोट में लिपटे.

धुंधला भी पड़ते मैंने उसे देखा है,
जब अलमारी के आखरी खंजे में कपड़ो के नीचे से
किसी भूले-बिसरे लिफ़ाफ़े से कल फिसलता है.

मैंने कल को गेखा है...
बेरंग सा भी जन पड़ता है कभी,
कुछ रंगीन नज़रों और हसीं लम्हों को समेटे.

आज कल तो सुना है, दफ्तरों की मेजों तक पहुँच गया है.
कहीं थम-पिन से लटके...
तो कभी कम्प्यूटर से झांकते.

अजीब तो है ये कल की दुनिया...
ये तस्वीरों की दुनिया...
कुछ थमे लम्हें जंहाँ तुम्हे सदियों की सैर पर ले जाते हैं.

Sunday, January 10, 2010

कुछ लिखने की चाह हुई...
तोह झट से कलम उठाई, और यादों का टोकरा भी,
नरम सी धुप भी आ कर बैठी थी मेरे पास.
महफ़िल पूरी थी, अदरक वाली चाय के प्याले के साथ.
दाग उसका मेरे कोरे पन्ने पर आज भी ताज़ा है.
वक्त के थमे पहिये से जान पड़ता है...
सब था, कॉपी-पेन, बीता और आने वाला कल,
पर कुछ यूँहीं
उँगलियों ने मेरा साथ छोड़ दिया.
क्या करूँ, अजीब तो है,
पर तुमसे ख्वाबों में मिलना भी मेरे लिए आसां नहीं है.