Monday, September 26, 2016

मौहलत

मौहलत ही तो मांगी है तुमसे,
कुच्छ चंद लम्हों की
तो क्या ग़लत है की उनमे मेरी उम्र तमाम हो जाए

चंद रातों की ही तो बात है,
ढलते सूरज की, चढ़ते उस चाँद की सिर्फ़ छोटी सी फर्याद है,
रुक जाओ की सब थम जाएगा तुम्हारे साथ
बस साँसें चलती रहेंगी,
कुच्छ उलझी सी, कुछ सुलझी सी

मौहलत ही तो माँगी है तुमसे,
एक सिंदूरी सी शाम की,
मेरी साँसों मे घुल जाओ तुम जब,
रात की रानी फ़िज़ा मे जैसे

धड़कनो की टिक-टिक पर बस,
सहेर दूर, बहुत दूर जाती रहे
सिरहाने कुच्छ ख्वाबों मे लिपटे,
रात बस बैठी रहे

इजाज़त बस तुम ये दे देना,
की खर्च सकूँ तुम पर मैं
जमा करे हुए तमाम वो लम्हे,

कुच्छ भीगे से लम्हे, कुच्छ सूखे से लम्हे
कुच्छ बिखरे से, कुच्छ संभाले से लम्हे
गुल्लक मे खन्नकते, वो बेशुमार लम्हे

फिर कान्हा ज़रूरत पड़ेगी जमा करी हुई मेरी दौलत की,
ना क़िष्तों की, ना क़तारों की,
ना ही किसी और अम्मानत की

बस तुमसे क़र्ज़ लिया करेंगे
कुच्छ साँसें कभी, कुच्छ आहें कभी
कुच्छ मौहलत कभी, बेपरवाह मोहब्बत कभी


Wednesday, June 24, 2015

बूंद-बूंद

ख़ुश्बू फ़िज़ा में एक घुली सी,
धुंद नज़र में कुछ जमी सी है, 
बूंदें टपकी हैं पलकों से गलों पर, 
आँख नम है, पर उदास नहीं,
पेशानी को चूमती है, कभी रूह को भीगती है 
हाथों की लकीरों को सोकति,
पगडंडी हो कोई जैसे गीली सी एक नदी किनारे, 
महकति ये हवा झोंकों में कुछ बोलती है,
गुच्छे गुलमोहर के लटकते हैं कंही, कंही ग़ुलाबी सी चादर है बोगन की 

कई बार ज़हन में ख्याल आता है ये,
पहली बारिश है ये, या महोब्बत तुम्हारी,
तार-तार भिगति
बूंद-बूंद महकती 


Wednesday, January 7, 2015

धूप

मरहूम इरादे हैं कुछ,
कुछ कतरे अरमानों के,
उधड़े टाँके कुछ हैं,
कुछ अफ़सोस भी बाकी हैं...

सूख चुके हैं सब,
यतीम से लव्ज़ कुछ,
कुछ बेलव्ज़ सी बात-चीत,
रूठी सी किस्मत और चारपाई  के किनार पे बैठी मोहब्बत

आज मौका बड़ा अच्छा है,
रात कुछ ज़्यादा सर्द है, कोहरा कुछ ज़्यादा घना है...
पीछे चौक में सब रखा है तैयार कर-कर,
आज इनकी ही तापनी करते हैं...कुछ आग सेकते हैं.

सेहर होगी उसी ताप से...एक नई सेहर...
मूढ़ों पर बैठे वहीँ, सुबह की धूप भी सेकेंगे.
खुश्क धूप...एक नई सुबह की कोसी सी धूप.




Wednesday, October 22, 2014

बेशुमार ख़ामोशी

बेशुमार ख़ामोशी भर देते हैं बेज़ुबां से रिश्ते ज़िंदगी में,
क्या ख़ूब हो की ख़ामोश सन्नाटे सुनने का हुनर भी बक्श देता तू ए ख़ुदा.
लफ़्ज़ों में नही तो क्या, गुफ़्तगू ख़ामोशी में करते, 
चाय की चुस्की को आँख दिखाते, पन्नो की सरगोशियों को शोर कहते.  

Saturday, April 6, 2013

चल फ़लक़ के उस पार चलें


चल फ़लक़ के उस पार चलें 

सिंदूरी सी शाम जब धीमे-धीमे सुरमई होती होगी 
शीशम दिन-भर का थक कर जब 
अपना बिखेरा समेटता होगा 
वँही मिलूँगा तुमसे मैं, उस सिंदूरी सी शाम में, उस सुरमई सी रात में।

निकल पड़ेंगे बस, दुद्धिया तारों पर पाओं रखते हुए 
घूमते, ढूंढते,
किसी घर लौटते परिंदे से राह पूछते 
जा पहुँचेंगे फ़लक़ के उस पार 

कुछ रौशनी के तारों की चटाई तुम एक बुन लेना 
उधार ले आऊंगा बदली कुछ, मस्नत और तकिये करने 
वंही बैठेंगे तुम और मैं, 
चंदा पे पीठ टिकाए, तारों पर पैर फैलाए।

उँगलियाँ होंगी उँगलियों में उल्छी 
उल्छेंगी नज़रें नज़रों से 
धड़कन भी तो उल्छी होगी, उफनती कभी, कभी मद्धम होगी
और फिर वो लम्हा आएगा, जब निंदिया का साया छाएगा,
नर्म हवा में कोसा कम्बल कभी तुम काँधे से खींचना, 
कभी मैं करवट लेते खींचूंगा 

इसी खिंचा-तानी में,
रूठने मानाने में,
रात कटेगी आँखों-आँखों में,
जब  बैठेंगे तुम और मैं, 
फ़लक़ के उस पार,
चंदा पे पीठ टिकाए, तारों पर पैर फैलाए।

सुरमई सी रात जब, धीमे-धीमे सिंदूरी होती जाएगी।  


Thursday, November 29, 2012

रिश्ता

क्यूँ जताते हो हरक़तों से, सवालों से 
की गुम हो इतने ख़्वाबों, उम्मीदों में 
की फ़लक को मंजिल समझते-समझते 
ज़मी से रिश्ता ही तोड़ बैठे।

Thursday, October 18, 2012

ऐयाशी

आज थोड़ी सी ऐयाशी की मोहलत मांगी है, 

पांव में घुंघरू, नज़र में प्यास लौटी है,
होंटों पे इक गाली है,
नज़र भी बेशर्म सी, गिरती नहीं, सब तकती रहती है,


आज थोड़ी सी ऐयाशी की मोहलत मांगी है,

अँधेरे से दोस्ती कुछ और गहरी होती जाती है,
यारों में उठने-बैठने की वजह ही बेवजह सी होती जाती है,

रौशनी में आँखे मलने का वक्त भी बड़ा बेवक्त है

आज थोड़ी सी ऐयाशी की मोहलत मांगी है,

लिहाफ़ तो छुटा कांहीं,
जुटी भी कंही छुटी है,
दुपट्टा एक बाकि है, थोड़ा ढलका, थोडा संभला है,


आज थोड़ी सी ऐयाशी की मोहलत मांगी है,

प्यालों से प्याले टकराने की ये ज़िद बड़ी कमज़र्फ है,
लड़खड़ाते कदम भी बात कोई सुनते नहीं, कम्बक्त हैं,
बेसुरिलों की गजलें, नज़्में हाय! सब गुन्गुनानी हैं,


आज थोड़ी सी ऐयाशी की मोहलत मांगी है,

की सवेरा होते होते कांहीं गुम जाए,
की याद पिछली बात कोई भी न आए,
आज में, अब में, बस यंहीं कंही में सब रुक जाए




आज खुद की रातों से एक रात उथार मांगी है,
आज थोड़ी सी ऐयाशी की मोहलत मांगी है।