Thursday, November 29, 2012

रिश्ता

क्यूँ जताते हो हरक़तों से, सवालों से 
की गुम हो इतने ख़्वाबों, उम्मीदों में 
की फ़लक को मंजिल समझते-समझते 
ज़मी से रिश्ता ही तोड़ बैठे।

Thursday, October 18, 2012

ऐयाशी

आज थोड़ी सी ऐयाशी की मोहलत मांगी है, 

पांव में घुंघरू, नज़र में प्यास लौटी है,
होंटों पे इक गाली है,
नज़र भी बेशर्म सी, गिरती नहीं, सब तकती रहती है,


आज थोड़ी सी ऐयाशी की मोहलत मांगी है,

अँधेरे से दोस्ती कुछ और गहरी होती जाती है,
यारों में उठने-बैठने की वजह ही बेवजह सी होती जाती है,

रौशनी में आँखे मलने का वक्त भी बड़ा बेवक्त है

आज थोड़ी सी ऐयाशी की मोहलत मांगी है,

लिहाफ़ तो छुटा कांहीं,
जुटी भी कंही छुटी है,
दुपट्टा एक बाकि है, थोड़ा ढलका, थोडा संभला है,


आज थोड़ी सी ऐयाशी की मोहलत मांगी है,

प्यालों से प्याले टकराने की ये ज़िद बड़ी कमज़र्फ है,
लड़खड़ाते कदम भी बात कोई सुनते नहीं, कम्बक्त हैं,
बेसुरिलों की गजलें, नज़्में हाय! सब गुन्गुनानी हैं,


आज थोड़ी सी ऐयाशी की मोहलत मांगी है,

की सवेरा होते होते कांहीं गुम जाए,
की याद पिछली बात कोई भी न आए,
आज में, अब में, बस यंहीं कंही में सब रुक जाए




आज खुद की रातों से एक रात उथार मांगी है,
आज थोड़ी सी ऐयाशी की मोहलत मांगी है। 


Thursday, June 7, 2012

कभी यूँ भी हो...

कभी यूँ भी हो...
की फ़लक से उतर आओ तुम
मेरी शाम को सेहर करने
मेरे दिन को तुम्हारी रात करने

कभी यूँ भी हो...
की हक़ीक़त से परे एक जहाँ हो
तीन मज़िले मकान की
छत मोहोब्बत, फर्श आसमान हो

कभी यूँ भी हो...
की आँगन की देहलीज़ पर बैठे
इंतज़ार में तुम्हारे जब आँख लगे
तो चढ़ते चाँद के साथ अफ़ाक  पर तुम दिखो

कभी यूँ भी हो...
की अल्फ़ाज़ों  की भीड़ में
जब एक छोटा सा लम्हा तन्हा मिले,
तो हाथ थमे मेरा, तुम्हार
बोले ख़ामोशी...मुस्काए सन्नाटा

कभी यूँ भी हो...
की तुम को ढुंढाती
मै ख़ुद से मिल जाऊँ कँही
किसी रोशन सी रात में...किसी केसरी सी सुबह में 

कभी यूँ भी हो...
बस यूँ ही कभी...
की पहली बारिश में भीगे हम,
बूंदों सी गीली ख्वाहिशें हों और तापनी जलती हो अरमानो की.

कभी यूँ भी हो...
बस यूँ ही कभी...
कभी यूँ भी हो...


Wednesday, April 25, 2012

महफूज़


महफूज़ रखा है तुम्हे मैंने...
कुछ ख्यालों में,
कुछ किताबों में,
चंद लम्हों में,
तमाम रातों में...

महफूज़ रखा है तुम्हे मैंने...
उड़ते आँचल कि किनारों में,
गुलमोहर कि केसरी छाओं में,
चंद आंसुओं में,
तमाम बारिशों में...

महफूज़ रखा है तुम्हे मैंने...
कुछ पुराणी चिट्ठियों में,
कुछ बंद लिफ़ाफ़ों में,
चंद तस्वीरों में,
तमाम यादों में...

महफूज़ रखा है तुम्हे मैंने...
हर सलाम, हर इबादत में,
कभी दुआओं, कभी ख्वाबों में,
दिल के वीरानों में,
महफिलों, बाज़ारों में,

महफूज़ रखा है तुम्हे मैंने...
महफूज़ रखा है तुम्हे मैंने...



Tuesday, March 20, 2012

सिलवटें...


ले दे के कुछ बाकि बचा है तो बस ... सिलवटें
गुज़रे कल की सिलवटें
बीती रात की सिलवटें
एक उम्र भर लम्बी...
एक दुसरे में उलझी हुई, लिपटी हुई सिलवटें

मेरे माथे पे बिखरी झुल्फों सी ये सिलवटें
कंधों पे ढोए बोझ की सबब वो सिलवटें
हाथों पे कभी दौड़ती, कभी रेंगती ये सिलवटें
मुक्कदर को मेरे अपने साथ भागाती, कभी खींचती हुई सिलवटें

कुछ यादों की सिलवटें
कुछ मुलाकातों की सिलवटें
कुछ खोए पलों की...कुछ रौंदे अरमानों की सिलवटें
कभी मनचले से मन पर भी मिली हैं, कुछ खामोश पड़ी सिलवटें

क़बिलित की कुछ, कुछ हार की थी उसमे सिलवटें
कुछ तकरार की और कुछ बेशुमार प्यार की सिलवटें
हाथ से झाड कर, खिंच कर कोशिश भी की थी...
नहीं जाती मेरे नाम के पन्ने में दबी हुई ये सिलवटें

चुप- चाप से आज कल
मेरी पुरानी अलमारी के कांच तक पहुँच गईं हैं ये सिलवटें
ताकती हैं ये मुझको...घूरती नहीं...
गुज़ारे ज़मानों की याद... ये सायानी सी सिलवटें...
ले दे के कुछ बाकि बचा है तो बस ...

मेरे चेहरे कि सिलवटें
मेरे तजुर्बे की सिलवटें.



Sunday, February 5, 2012

मुझे याद कर लेना

हर सुबह, हर नया दिन
एक नया चेहरा रूह-बरूह कराएगा,
उन चेहरों कि भीड़ में,
एक मेरा चेरा भी कभी याद कर लेना.

रोज़ फिर शाम का ढलता सूरज,
जुगनू तुम्हारे हाथ में एक थमा जाएगा,
और मिलेगा सयों का मेला,
हो मेले में खड़े अकेले, तो अपनी इस परछाई को याद कर लेना

हर सफ़र मुकम्मिल करने के लिए,
करवें होंगे...हमसफ़र होंगे
तन्हा कट रहा हो रास्ता कोई अगर,
मेरे साथ बिताए पल याद कर लेना

किसी तूफ़ान के आते ही,
डर कर...सुलह कर न छिपना...लड़ लेना
और लड़ कर थक जाओ कभी तो,
मेरा उड़ता आँचल याद कर लेना

कोई चिट्ठी, कोई तस्वीर को देख कर,
आँख भर आए...या आंसू कोई बहे
जब दुआ के लिए हाथ उठाना बस नामुमकिन सा जान पड़ता हो
तो आँखे मीच कर, मेरा दिखाया ख़्वाब कोई याद कर लेना

हर ईंठ...हर नीव को हिलता देख
हर कदम, हर उम्मीद को डुलता देख
सब थम जाने कि इच्छा हो तो
मैंने थमा था तुम्हे जब...वो कल याद कर लेना

हर धुन...हर आवाज़ सुन कर,
मुस्कुराओ कभी कोई गीत सुन कर
पर झांकता न हो कोई, झरोखों के उस पर से
तो मेरे बचते घुंगरू याद कर लेना

हर ठोकर...हर हार पर
या जा पहोंचो किसी चौराहे पर
अकेले तन्हा...गुमसे घबराए
तो मेरे साथ उठाए वो क़दम याद कर लेना

हर जाम...हर महफ़िल से साथ
यारों-दोस्तों कि भीड़ से परे
दो निगाहें तुम्हे पहचानती दिखें तो,
तुम्हे पूछती, तुम्हे ढूंडती, तुम्हे चाहती...
मुझे याद कर लेना


फिर...

वो शाम आज फिर आई थी,
पूछ ती थी मुझसे,
"क्या ढूंढ़ रही हो तुम....?"
एक साया, एक परछाई जो किसी हमसफ़र तक ले चले

वो सर्दी कि धुप आज फिर निकली थी,
पूछ ती थी मुझसे,
"कोहरा कुछ याद दिलाता है...?"
क्या कहूँ, नजदीकियां, वो ठण्ड में ठिठुरना, सब सपने सा लगता है

ओंस पत्तों पर आज फिर देखि थी,
पूछती थी मुझसे,
"आंसू कितने बहाए...?"
नहीं!...आँख मॉल कर जवाब दिया पर गला भर ही आया था

वो हिलती बेंच आज फिर ढुंढी थी,
पूछती थी मुझसे,
"आज यंहां कैसे...क्या कोई...?"
वन्ही बैठ कर, तुम्हे सोच कर, जाने जाने कितने सवाल मैंने

गुज़री उस रासते से आज फिर थी,
पूछता था मुझसे,
"कदम उठाओ, बढ़ना नहीं है क्या...?"
सहमा मन, कि एक हमराही हाथ थमे चलता तो आसां होता.

वो हवा छू कर आज फिर गई थी,
पूछती थी मुझसे,
"कन्हन गई वो हंसी...वोह शर्म...?"
मुस्कुराई, तो ये आँख भर आई...हवा ने स्संभाला, आंसूं पोंछा, और फिर उड़ गई

वो तस्वीर आज फिर निकली कहीं से,
पूछती थी मुझसे,
"सब बदल गया है क्या...?"
सच, बदल ही तो गया है सब कुछ...सोचा तो याद आया, नहीं! मैं वही थी

वो रात चुपके से आज फिर आई थी,
हंसकर पूछ ती थी मुझसे,
"आज मिलोगे क्या...?"
शायद कभी नहीं, बोल के पलटी...वहाँ फिर भी अँधेरा था

एक ख़्वाब रात से फिर छिना था,
पूछता था मुझसे,
"अरे! होंश खो बैठी हो क्या...?"
हाँ! ख़्वाब ही तो हैं मेरे अपने...तुमसे तुमको चुराके छुपाना था.


Friday, February 3, 2012

मेरा मन परिंदा होता जाता है

आज़ाद परिंदे सा मन
भर रहा उड़न है एक...
पंख फैलाए...
उस ओर, असीम आकाश जहाँ थक कर
ज़मी कि गोद में जा बैठा हो...
धुंधला ही सही, पर क्षितिज दूर जंहाँ पे दीखता हो...
बस उड़ना हो...बिना डोर...बिना रोक कोई...
मेरा मन जब परिंदा होता जाता हो.

आवारा परिंदे भी तो दिन ढलते,
घरोंदों में अपने लौट आते हैं.
शाख़ों पर...कुछ पत्तों के बीच,
कभी माँ कि थपकी में सोते हैं...
तो कभी इश्क़ के आगोश में खो जाते हैं.

बस यंही आ कर के फ़र्क मालूम जान पड़ता है.
घर कहाँ है, ज़हन में अक्सर ये ख्याल उठ कर आता है.
दस्तक किस दरवाज़े पे दूँ,
माहि कोई...किस तरफ रास्ता देखता होगा?

कुछ इसी अफ़रा-तफ़री में,
शाम से सेहर होती जाती है...
और फ़लक पर चाँद फीका पड़ता जाता है.

यूँही कभी जब...मेरा मन परिंदा होता जाता है.


Tuesday, January 10, 2012

ख़ुश्बू

मेरा घर तेरी ख़ुश्बू पे ज़िन्दा है...
सांस लेता है...तभी तो जीता है...

तुम्हारी साँसों की ख़ुशबू
तुम्हारी आहों की ख़ुशबू
कभी ज़िद ... कभी तपिश की ख़ुश्बू

तुम्हारे ख़्वाबों की ख़ुश्बू
तुम्हारी राहों की ख़ुश्बू,
कभी कोशिश ... कभी जुस्से की ख़ुश्बू

तुम्हारी मोहोब्त की ख़ुश्बू,
तुम्हारी मस्ती की ख़ुश्बू,
कभी ख़ाहिश ... कभी तकलीफ की ख़ुश्बू

रात रानी की बेल चढ़ते चढ़ते
खिड़की तक मेरे पोंहोंच गई है
तुमसी ही तो लगती है हर रात...हर फूल की ख़ुश्बू

तुम्हारे इतर की होती है वो ख़ुश्बू
तुम्हारा पीछा करती वो भीनी सी ख़ुश्बू
मेरे कमरे को भरती...तुम्हारी वो ख़ुश्बू.

मैं तेरी ख़ुश्बू पे ज़िन्दा हूँ...
सांस लेती हूँ ...तभी तो जीती हूँ