Sunday, February 5, 2012

मुझे याद कर लेना

हर सुबह, हर नया दिन
एक नया चेहरा रूह-बरूह कराएगा,
उन चेहरों कि भीड़ में,
एक मेरा चेरा भी कभी याद कर लेना.

रोज़ फिर शाम का ढलता सूरज,
जुगनू तुम्हारे हाथ में एक थमा जाएगा,
और मिलेगा सयों का मेला,
हो मेले में खड़े अकेले, तो अपनी इस परछाई को याद कर लेना

हर सफ़र मुकम्मिल करने के लिए,
करवें होंगे...हमसफ़र होंगे
तन्हा कट रहा हो रास्ता कोई अगर,
मेरे साथ बिताए पल याद कर लेना

किसी तूफ़ान के आते ही,
डर कर...सुलह कर न छिपना...लड़ लेना
और लड़ कर थक जाओ कभी तो,
मेरा उड़ता आँचल याद कर लेना

कोई चिट्ठी, कोई तस्वीर को देख कर,
आँख भर आए...या आंसू कोई बहे
जब दुआ के लिए हाथ उठाना बस नामुमकिन सा जान पड़ता हो
तो आँखे मीच कर, मेरा दिखाया ख़्वाब कोई याद कर लेना

हर ईंठ...हर नीव को हिलता देख
हर कदम, हर उम्मीद को डुलता देख
सब थम जाने कि इच्छा हो तो
मैंने थमा था तुम्हे जब...वो कल याद कर लेना

हर धुन...हर आवाज़ सुन कर,
मुस्कुराओ कभी कोई गीत सुन कर
पर झांकता न हो कोई, झरोखों के उस पर से
तो मेरे बचते घुंगरू याद कर लेना

हर ठोकर...हर हार पर
या जा पहोंचो किसी चौराहे पर
अकेले तन्हा...गुमसे घबराए
तो मेरे साथ उठाए वो क़दम याद कर लेना

हर जाम...हर महफ़िल से साथ
यारों-दोस्तों कि भीड़ से परे
दो निगाहें तुम्हे पहचानती दिखें तो,
तुम्हे पूछती, तुम्हे ढूंडती, तुम्हे चाहती...
मुझे याद कर लेना


फिर...

वो शाम आज फिर आई थी,
पूछ ती थी मुझसे,
"क्या ढूंढ़ रही हो तुम....?"
एक साया, एक परछाई जो किसी हमसफ़र तक ले चले

वो सर्दी कि धुप आज फिर निकली थी,
पूछ ती थी मुझसे,
"कोहरा कुछ याद दिलाता है...?"
क्या कहूँ, नजदीकियां, वो ठण्ड में ठिठुरना, सब सपने सा लगता है

ओंस पत्तों पर आज फिर देखि थी,
पूछती थी मुझसे,
"आंसू कितने बहाए...?"
नहीं!...आँख मॉल कर जवाब दिया पर गला भर ही आया था

वो हिलती बेंच आज फिर ढुंढी थी,
पूछती थी मुझसे,
"आज यंहां कैसे...क्या कोई...?"
वन्ही बैठ कर, तुम्हे सोच कर, जाने जाने कितने सवाल मैंने

गुज़री उस रासते से आज फिर थी,
पूछता था मुझसे,
"कदम उठाओ, बढ़ना नहीं है क्या...?"
सहमा मन, कि एक हमराही हाथ थमे चलता तो आसां होता.

वो हवा छू कर आज फिर गई थी,
पूछती थी मुझसे,
"कन्हन गई वो हंसी...वोह शर्म...?"
मुस्कुराई, तो ये आँख भर आई...हवा ने स्संभाला, आंसूं पोंछा, और फिर उड़ गई

वो तस्वीर आज फिर निकली कहीं से,
पूछती थी मुझसे,
"सब बदल गया है क्या...?"
सच, बदल ही तो गया है सब कुछ...सोचा तो याद आया, नहीं! मैं वही थी

वो रात चुपके से आज फिर आई थी,
हंसकर पूछ ती थी मुझसे,
"आज मिलोगे क्या...?"
शायद कभी नहीं, बोल के पलटी...वहाँ फिर भी अँधेरा था

एक ख़्वाब रात से फिर छिना था,
पूछता था मुझसे,
"अरे! होंश खो बैठी हो क्या...?"
हाँ! ख़्वाब ही तो हैं मेरे अपने...तुमसे तुमको चुराके छुपाना था.


Friday, February 3, 2012

मेरा मन परिंदा होता जाता है

आज़ाद परिंदे सा मन
भर रहा उड़न है एक...
पंख फैलाए...
उस ओर, असीम आकाश जहाँ थक कर
ज़मी कि गोद में जा बैठा हो...
धुंधला ही सही, पर क्षितिज दूर जंहाँ पे दीखता हो...
बस उड़ना हो...बिना डोर...बिना रोक कोई...
मेरा मन जब परिंदा होता जाता हो.

आवारा परिंदे भी तो दिन ढलते,
घरोंदों में अपने लौट आते हैं.
शाख़ों पर...कुछ पत्तों के बीच,
कभी माँ कि थपकी में सोते हैं...
तो कभी इश्क़ के आगोश में खो जाते हैं.

बस यंही आ कर के फ़र्क मालूम जान पड़ता है.
घर कहाँ है, ज़हन में अक्सर ये ख्याल उठ कर आता है.
दस्तक किस दरवाज़े पे दूँ,
माहि कोई...किस तरफ रास्ता देखता होगा?

कुछ इसी अफ़रा-तफ़री में,
शाम से सेहर होती जाती है...
और फ़लक पर चाँद फीका पड़ता जाता है.

यूँही कभी जब...मेरा मन परिंदा होता जाता है.