Thursday, October 29, 2009

funnily blissful...

It a funny feeling...rather blissful....no, funnily blissful feeling...yaah! That comes to the closest explaining to what i am feeling right now.

This is the feeling one gets when you suddenly leave everything to time/chance/luck/or one of such things. The feeling is stronger when you have been a control freak all your life, have know exactly what you wanted and fought all odds to get it. The feeling is at its ultimate when it dawns to you only recently realised how much of a control freak you were.

But the feeling is funnily blissful....when suddenly nothing that you plan for happens the way you plan it. Most times it does not happen at all. There people, mostly friends and family who ask you all the time, "is this really you?" or "you weren't like this" and the only answer you can give them is a nod, right when something inside you is screaming..."OH BOY TELL ME ABOUT IT....!". After all who will know best that i have not been myself lately.

Sometimes I feel I have stepped out of myself and watching me live this life...! Now that id funnily blissful.

Aggressive, fast, exciting yet mundane, slow and drab. 'Cut rahi hai..." I often hear people saying it, guess I say it sometimes too, though I hate the phrase. But that it is and the constant question that bothers me in my head is 'What Next?'.

Live in now...okay! that's good...but i guess that is not enough. Shouldn't there be something to look forward to. Something that you are working towards, walking towards or even strolling towards, but some place to get to. A journey is what I have always described life as and i want it to be like that.

But like i recently realised, nothing i plan for ever happens...so I have decided to come up with a master plan. I shall play a game. Plan for all the things that i do not want to do or I do not want to happen. As things usually happen with me, I should be able to deceive my way through to what i really want i guess... ;-)

yours funnily blissful
Dhara

Wednesday, October 14, 2009

आँख से टपके तो आंसू
दो उँगलियों में मॉल दो तो हवा,
पत्ते की नोक पे जा बैठे तो ओंस
कोई निगल जाए तो मोती...
एक बूंद ही है पर लेती कई रूप...
कुछ ऐसी ही बूंदों को मिल्ली भगत जलते सूरज को भी नहीं बख्शती,
कभी घाना बदल बनके तो कभी असीम समुद्र बनके.

धुंध है, ओसं है, कुछ नमी भी है आँख में,
आसूं हैं, झुकी पलकें हैं,
पर ना... कहीं कुछ चुभता नहीं है,
कभी-कभी यूँ भी होता है,
की छलकती हैं आँखें,
दर्द हवा में घुला है या नसों में दौड़ता है,
मालूम करना बाकि है.

एक बारिश का इंतजार है, एक तूफ़ान की राह देख रही हूँ,
खिड़की के बाहर हाथ फैलाए,
मांग रही हूँ,
वो गए साल की भीनी खुशबु, वो बीती हुई गीली सी बूंदें.
गया हुआ कभी लौटता नहीं, मैंने सुना है...
पर तुम्हे आना होगा, मेरे सूखे मन को हरा करने.

Rahul's "Vyas मेहता"

कटपुतली का खेल है एक, सब कहते हैं!
एक आती है एक जाती है,
लाइम-लाइट, स्क्रिप्ट, एक्शन और कट,
सब है!
रंगमंच जिसे कहते हैं, शायद ज़िन्दगी उसी का नाम हैl
अजीब लगेगी पर बात सच है,
इस ज़िन्दगी के रंगमंच पर हर कलाकार एक हीरो है,
और हर जिंदगानी एक कहानी हैl
सीखना न सीखना देखने वालों पर है,
क्यूंकि 'वंस मोर' की फरमाइश यहाँ पूरी होती नहींl
Rahul's "Vyas मेहता"
गुज़रे कल से मिलना आसान नहीं होता,
कंही ज़मी कंही आसमा नहीं होता...
बोहोत ऐसे भी हैं जो इस रस्ते की ओर कभी मुड़ते नहीं...
क्या पता कोन सा भटकता साया पुछले,
'अरे! कंहाँ थे, बोहोत दिनों बाद नज़र आए???'
अक्सर बीते वक़्त का हिसाब खुद तुम्हारे पास नहीं होता!

एसी सी ही कुछ हो गई है ज़िन्दगी,
चंद साँसों में उलझी ज़िन्दगी.
शक होता है चाह जीने की इसे फ़ीकी पड़ गई है
या सचमुच वक़्त मंहगा हो चला है.
काश के ज़िन्दगी में भी एक रिमोट नाम की चीज़ होती.
इस रेस में कहीं पूर्णविराम नहीं तो अल्पविराम तो लगता...
ज़िन्दगी दम भर सांस लेने की मोहताज तो न रहती.
दो बूँद ही तो लगते हैं गुलिस्ताँ को आबाद करने केलिए,
एक तुम लेआओ,
एक मैं बरसा देती हूँ...
बाकी काम कुच्छ कुदरत की फ़ितरत पे छ्चोड़ते हैं!

कल

एक भुला सिसकता साया,
किसी अजनबी शेहेर की भीड़ में
जब बीता रिश्ता एक रूह-बरूह करता है,
हाँफते-हाँफते अपना अक्स
पहले बनता, फिर बताता है.
तब चीख चीख के यह खामोश मन कहता है,
हाँ-हाँ मैं इसे जनता हूँ.....
ये, मेरा गुज़रा हुआ कल है.

एक अरसा हो गया...

एक अरसा हो गया...
की खुद से बातें करीं हो मैंने,
की परछाई अपनी धुदी हो मैंने,
या यूँहीं अकेले बैठ मुस्कुराई हूँ.

एक अरसा हो गया...
की खामोशी को सुना हो मैंने,
की अँधेरे में कुछ देखा हो मैंने,
या संदूक कोई पुराना खोला हो.

एक अरसा हो गया...
की पुराने ख़त फिर पढ़े हों मैंने,
की हंसते हंसते आसूं पोंचे हो मैंने,
या गले लिफाफों में रिश्ते ढूंढे हों.

एक अरसा हो गया...
कुछ कत्चे टाँके मारे हों मैंने,
की तस्वीरों का पिटारा फिर खोला हो मैंने,
या गठरी की उस गांठ से लड़ी हूँ.

एक अरसा हो गया...
की यारों से यारी निभाई हो मैंने,
की वो सूखे फूल फिर छिपाए हों मैंने,
या सिर्फ किसी को थमा हो.

एक अरसा हो गया...
की खुद से बातें करीं हो मैंने,
की परछाई अपनी फिर धुंदी हो मैंने,
या अकेली बैठ मुस्कुराई हूँ...
एक अरसा हो गया.
कल रात एक हवा के झोंके ने
मरी खिड़की पे दस्तक दी थी,
फिर इजाज़त भी मांगी कुछ देर ठेहेरने की.
अंजन सी उस शक्ल पर मैंने पर्दा कर दिया...
और जाते क़दमों की आहट भी सुनी.
पीछे बची खामोशी और घुर्राते चाँद से पूछा,
तो तुनक के बोले...
वो जो चली गई, तेरी रूह थी.

safed chadar

एक सफ़ेद चादर...
जो चार पायों के बीच
कांहीं सिकुडी पड़ी है.
गोर से देखो तो सिलवाते भी साफ़ मालूम पड़ती हैं.
इतने शोर के बीच यंहन एक अजीब सा संता है.
दो जिस्म, दो जाने, दो रूहें...
आज भी यंहन रोज़ एक होती हैं.
मेरी आखों में कुछ चुभा,
जब मोहोबत को इस तरह सरेआम नुमाइश पे पाया.
मन में कांहीं एक चीख उठी,
जब उस सफ़ेद चादर में दफानी उन तमाम आहों को महसूस किया.
चाँद की जवानी भी इसकी हर सिलवट पर लोटती है.
उन सर्द हवनों में यंहन दबे शोलों की आग कुछ और बड़ती है.
मेह्फिलिएँ लोग आज भी यंहन लगते हैं...
इस मंज़र को यह लोग...ताज महल कहा करते हैं.