Wednesday, December 16, 2009

कभी लफ्ज़ कम पड़ जाते हैं
तो कभी नज़रों की कही पढनी मुश्किल I
माथे की शिकंज, कासके बंद करी मुट्ठी
तो कभी शोर मचाती चुप्पी
नाख़ून को दांत से कुरेदते भी मैं तुम्हे देखा था...
ख़फ़ा रहने के अंदाज़ बड़े हैं और दिखाने को तेवर कई...
जवाब में एक गुस्से का साथ था,
तो कमज़र्फ गुस्सा भी आंसू बनके हवा हो जाता है