Thursday, December 15, 2011

...लगता है!

हवा भी कुछ मद्धम सी लगती है...
धुप कुछ और सुन्हेरी लगती है...
घंटो तक बैठे खिड़की से,
टक-टकी लगाना, एक अजीब सी मशरूफी लगती है...
ग़ुम लगती हुं कुछ ख़यालों में पर,
अक्सर ख़याल भी कुछ ग़ुम से लगते हैं...
चौंक के होंश में आती हूँ तो,
चाय कि प्याली ठंडी...और होंटों पे मुस्कान कोसी सी लगती है...
आँखें चरों ओर झट से घुमती हैं,
चोरी फिर एक बार किसी ने पकड़ी नहीं, लगता है...


दोश किसको दूँ, इन धुंधली सुबहों को या सर्द सी शामों को?
हाय! क्या करें कम्बक्त पूरा दिन ही रूमानी लगता है!

No comments:

Post a Comment