Thursday, December 15, 2011

...लगता है!

हवा भी कुछ मद्धम सी लगती है...
धुप कुछ और सुन्हेरी लगती है...
घंटो तक बैठे खिड़की से,
टक-टकी लगाना, एक अजीब सी मशरूफी लगती है...
ग़ुम लगती हुं कुछ ख़यालों में पर,
अक्सर ख़याल भी कुछ ग़ुम से लगते हैं...
चौंक के होंश में आती हूँ तो,
चाय कि प्याली ठंडी...और होंटों पे मुस्कान कोसी सी लगती है...
आँखें चरों ओर झट से घुमती हैं,
चोरी फिर एक बार किसी ने पकड़ी नहीं, लगता है...


दोश किसको दूँ, इन धुंधली सुबहों को या सर्द सी शामों को?
हाय! क्या करें कम्बक्त पूरा दिन ही रूमानी लगता है!

Monday, November 7, 2011

रौनक तो तब भी थी जब साथ बैठे चाय की प्याली से चुस्कियां लिया करते थे...
धुआं, धुंध सा जान पड़ता था...और हकीकत ख्वाब सी लगती थी


Wednesday, August 31, 2011

ख़ुद को भूलूं तो कुछ याद रहे...

ख़ुद को भूलूं तो कुछ याद रहे...
ये कम्बक्त ज़िन्दगी इतनी भी परेशां न रहे

मै से मौला कि ये दुरी भी इसी वजह से है...
माशूक के लिए मोहोबत भी तो ज़रा फीकी सी है...
मै कि पहचान कभी नई...कभी पुरानी रहे...

ख़ुद को भूलूं तो कुछ याद रहे...
ये कम्बक्त ज़िन्दगी इतनी भी परेशां न रहे

Tuesday, August 9, 2011

उस सेहर में...

तकिया मेरा गिला सा था...
उस सेहर में...
जब ख़्वाब मेरा एक टूटा सा था
टुकड़ों को धीरे-धीरे उठाया तो था...
झट से आँगन में दोड़ कर...
खली हाथों से कांच बटोर तो था
सिरहाने रखा था मेरा मलमल का दुप्पटा...
किनार कि सिलाई थोड़ी उधडी...
रंग कुछ फीका सा, कुछ उड़ा सा था
शायद अलविदा कह रही थी मै किसी खास को,
हाथ कस के थमा रखा था मैंने...
लेकिन चेहरा धुंधला ही कुछ दीखता सा था
तकिया मेरा गिला सा था...
उस सेहर में...
जब ख़्वाब मेरा एक टूटा सा था



Monday, August 8, 2011

माशूक

माशूक बना है मेरा नया-नया एक,
घंटों तक आगोश में उसके बैठे....
रंग दुनिया का कुछ अलग ही दीखता है
हर चीज़ धीमी...हर लम्हा रुका सा लगता है
इतराना भी सीख लिया मैंने...आँखे मटकाना, कभी ज़ुल्फ़ झटकना
अदाएं ये भी आती हैं, भूल गई थी मै...

माशूक नया है तो क्या हुआ...
सिलसिला-ए-इश्क तो पुराना है
दास्ताँ दिलों कि ये कंहाँ बदलती है...
मै मै ही रहती हुं...तुम तुम ही रहते हो!

Friday, June 17, 2011

लुक्का-छुप्पी

लुक्का-छुप्पी का इक खेल सा होता जाता है
कभी उजला सफैद...
तो कभी मट-मैला सा आसमा होता जाता hai...
इन कंबख्त बादलों का दीवानेपन...
मेरी सहर को शाम करता जाता है.

बरस जाओ अब तो ऐ हबीब...मेरी रूह तक भीगना चाहती हूँ मै.

Monday, June 6, 2011

आप सामने हैं तो कुझ ठिक-ठिक याद नहीं...
बाकी, एक बात हमे भी कहनी थी आप से!
शिकायतों से घिरी इस ज़िन्दगी में
कुछ तो कहीं ठिक होगा

वरना आज भी तुम्हारी इक नज़र
मुझे यूँ पिघला न देती.

Tuesday, April 12, 2011

बारात

ढोल-नगाड़ों के बीच
पूरे सोलह श्रृंगार के साथ
बारात निकली थी घर से उनके कल
मंडप-महूरत...पंडाल-झूमर सब लगाया
जलसा था...मस्त झूम रहे थे सब.

खिड़की से बैठे मैंने पूरा तमाशा देखा
मिलने लेकिन आज गई.
मंदिर के पण्डे से ज्यादा
आज भगवन थके से जान पड़ते थे.

Sunday, January 16, 2011

पलाश के फूल


तन्हा कभी बैठे,
ख़ुद में ग़ुम,
किसी किताब को सीने से लगाए,
जब भी पढ़ने का नाटक किया है...
दूर कहीं खिड़की से झांकते मैंने तुम को पाया है.

चाय का प्याला, या हो कप कॉफी का,
कॉपी-कागज़ बिखरे मेरे आस पास,
पेंसिल कहीं मेरे बलों में ग़ुम,
पेन को कभी ऊँगलियों पे घुमाया तो कभी दांत में दबाया है...
उस वक्त भी हर चुस्की में मैंने तुम को पाया है.

कमरे के किसी कोने में दुब्बक के बैठे देख,
जब भी खिड़की कि ग्रिल से झन कर
चाँद कि जवानी मुझसे मिलने आई है,
चमकीला सा इक रोशन पल हर बार मेरे पास इत्मिनान से ठहरा है...
चौंधयाई आँखों से उस पल में भी मैंने तुम को पाया है.

एक रोज़ चलते-चलते मैं, पिछली गली इक जा पहुंची,
सुनसान सा रास्ता था, मंज़र दूर धुंधला सा दीखता था
ऊँचे-ऊँचे खम्बे थे बस, टीम-टीम करती बत्ती वाले,
साया भी कंबख्त उस दिन कभी आगे - कभी पीछे फिरता था.
चकाचौंध रौशनी में फिर, मेरा साया तो कभी मिला नहीं...
तम के वीराने में उस दिन मैंने तुम को पाया है.

तुम्हारे घर के आँगन में, इंतजार करती बैठी हूँ,
केसरी सा आँगन तुम्हारा, केसरी सी छत है दिखती.
केसरी सी इस शाम में समझो, छाव भी केसरी-सी जान पड़ती है यहाँ.
मेरे पलाश...
माथे पे उगते केसरी सूरज कि धुप में आज फिर......
मैंने तुम को पाया है.