Wednesday, August 31, 2011

ख़ुद को भूलूं तो कुछ याद रहे...

ख़ुद को भूलूं तो कुछ याद रहे...
ये कम्बक्त ज़िन्दगी इतनी भी परेशां न रहे

मै से मौला कि ये दुरी भी इसी वजह से है...
माशूक के लिए मोहोबत भी तो ज़रा फीकी सी है...
मै कि पहचान कभी नई...कभी पुरानी रहे...

ख़ुद को भूलूं तो कुछ याद रहे...
ये कम्बक्त ज़िन्दगी इतनी भी परेशां न रहे

Tuesday, August 9, 2011

उस सेहर में...

तकिया मेरा गिला सा था...
उस सेहर में...
जब ख़्वाब मेरा एक टूटा सा था
टुकड़ों को धीरे-धीरे उठाया तो था...
झट से आँगन में दोड़ कर...
खली हाथों से कांच बटोर तो था
सिरहाने रखा था मेरा मलमल का दुप्पटा...
किनार कि सिलाई थोड़ी उधडी...
रंग कुछ फीका सा, कुछ उड़ा सा था
शायद अलविदा कह रही थी मै किसी खास को,
हाथ कस के थमा रखा था मैंने...
लेकिन चेहरा धुंधला ही कुछ दीखता सा था
तकिया मेरा गिला सा था...
उस सेहर में...
जब ख़्वाब मेरा एक टूटा सा था



Monday, August 8, 2011

माशूक

माशूक बना है मेरा नया-नया एक,
घंटों तक आगोश में उसके बैठे....
रंग दुनिया का कुछ अलग ही दीखता है
हर चीज़ धीमी...हर लम्हा रुका सा लगता है
इतराना भी सीख लिया मैंने...आँखे मटकाना, कभी ज़ुल्फ़ झटकना
अदाएं ये भी आती हैं, भूल गई थी मै...

माशूक नया है तो क्या हुआ...
सिलसिला-ए-इश्क तो पुराना है
दास्ताँ दिलों कि ये कंहाँ बदलती है...
मै मै ही रहती हुं...तुम तुम ही रहते हो!