Sunday, April 18, 2010

पोटली भर सामान

दर्द तो होता है तेरी बज़्म से उट्ठ कर जाते हैं जब भी,
फिर ख्याल आता है कि क्या लेके आए थे,
क्या साथ ले के जाना है...
अर्ज़ी तो डाली है...
इजाज़त मेले तो एक पोटली भर सामान लेजाना है...

थोड़े से शिकवे, थोड़ी शिकायत,
थोड़े से आंसू और भरपूर मोहोब्बत...

थोड़ी सी रातें, थोड़ी सी शामें
थोड़ा सा अम्बर, बस उतनी ही ज़मी...

सफ़ेद-सा एक नदी का पत्थर,
थोड़ा सा झरना, थोड़ा किनारा...

पैरों के नीचे से रेत भी थोड़ी सी,
बस मुट्ठी भर काफ़ी होगी...

और छोटी सी इक नाव भी देना,
थोड़ा सा समंदर साथ में बस होगा...

साइकल का पहिया, वो तीखी बेंत,
चन कितन्बें और थोड़ी सी मेज़...

ज़िद्दी बचपन थोडा सा,
थोड़ी सी अल्हड़ जवानी भी...

हाथ की लकीरों पर ऊँगली तुम्हारी,
थोड़ी शरारत, थोड़ी गुदगुदी...

थोड़ा सा सूरज, थोड़ा सा चंदा,
कोहरा थोड़ा और एक गहरा साया...

थोड़े से सपने, थोड़ी सी आशा,
थोड़ी सी हिम्मत, थोड़ा सा गुस्सा...

दांत से कुतरा नाख़ून वो थोड़ा,
मोती दो-चार, हिरा नहीं! उसे तुम रखना...

एक पीपल का पत्ता, गुलदस्ता गुलमोहर का,
थोड़ी सी डांट, थोड़ा सा लड़,

चादर पर फैली सिलवटें वो थोड़ी सी,
और थोड़ा सा आगोश तुम्हारा...

पोटली में बस इतना काफ़ी होगा,
साँस लेना के लिए...
हर रोज़ तुम्हे थोड़ा सा जीने के लिए...

Tuesday, April 6, 2010

नीम के पत्ते

झूमते-गाते, गुलटियाँ मरते...
हवा की मौजों पर सवारी करते,
एक-दूजे का हाथ थामे, आसमा को अलविदा कहते हैं
नरम सी धुप में अरमानो के पंख फैलाए,
एक नए सफ़र की शुरुआत करते हैं.

कभी-कबार, अकेला कोई भी दिख जाता है,
अपनी ही मस्ती में, बसंती रंग ओढ़े
धीमे से ज़मी को चुमते हैं.

नीम के पत्तों को कभी गिरते देखा है...
बेखबर होते हैं इस बात से
की ज़मीन तपती होगी
और छूता गरोंदा बहूत दूर

कच्ची सी एक डोर से बंधे हैं तुम और हम
तंग हो जाती है जो,
करवट लेते हो तुम जब.
उलझी-उलझी सी भी लगती है कभी
कुछ सर्द सांसो की तरह,
टकरा के तुमसे जो मुझे चूर करती हैं.

सकरी सी इक मुंडेर पे चलते हैं तुम और हम
बचते- बचाते मीलों तक चलना
पीपल कोई दिखे तो पल भर टेका लेना,
कभी पॉंव फिसले तो गीली मिट्टी के निशान
पीछा करते घर तक पहुँच जाते हैं

सूखे कुछ निशान, उस शाम की याद
अक्सर गीली कर जाते हैं

कई बारिशें बीती, कई बार मैंने चौखट को धोया

कम्बक्त! ऐसी छाप छोड़ी है की आज भी
चौखट के बहार, उस सूखे निशान
पे जब भी पैर रखा है,
पीपल की ठंडी हवा ने मेरी जुल्फों को छुआ है...

अजनबी...

अजनबी सा शेहेर है ये
अजनबी से हैं रासते,
खुद से अजनबी एक मै घूमता हूँ, इस अजनबी सी भीड़ में

अजनबी सी शक्ल है ये,
अजनबी सा है आइना,
अक्स जिसमे अजनबी है, साया भी गुमनाम है.

चलते-चलते राह में,
कभी अजनबी कोई देता है दुआ.
हाथ बढ़ाकर, गले लगा कर, दो-चार कोस कभी मेरे साथ चला

अलविदा कहने की बरी आइ,
अजनबी एक मोड़ पर,
अजनबी हमराही था मेरा, सफ़र भी वो अंजन था.

यूँही ही चलते जा पहुँचा,
भूले-बिसरे एक चौक पर,
हरा सा एक गुलमोहर खड़ा था, कोसी सी नरम धुप में

एक पता बस मालूम था,
किसी अजनबी के नाम का.
ख़त तो था मेरा हाथ में, चौखट पर बेनाम थी.