कभी यूँ भी हो...
की फ़लक से उतर आओ तुम
मेरी शाम को सेहर करने
मेरे दिन को तुम्हारी रात करने
कभी यूँ भी हो...
की हक़ीक़त से परे एक जहाँ हो
तीन मज़िले मकान की
छत मोहोब्बत, फर्श आसमान हो
कभी यूँ भी हो...
की आँगन की देहलीज़ पर बैठे
इंतज़ार में तुम्हारे जब आँख लगे
तो चढ़ते चाँद के साथ अफ़ाक पर तुम दिखो
कभी यूँ भी हो...
की अल्फ़ाज़ों की भीड़ में
जब एक छोटा सा लम्हा तन्हा मिले,
तो हाथ थमे मेरा, तुम्हार
बोले ख़ामोशी...मुस्काए सन्नाटा
कभी यूँ भी हो...
की तुम को ढुंढाती
मै ख़ुद से मिल जाऊँ कँही
किसी रोशन सी रात में...किसी केसरी सी सुबह में
कभी यूँ भी हो...
बस यूँ ही कभी...
की पहली बारिश में भीगे हम,
बूंदों सी गीली ख्वाहिशें हों और तापनी जलती हो अरमानो की.
कभी यूँ भी हो...
बस यूँ ही कभी...
कभी यूँ भी हो...
की फ़लक से उतर आओ तुम
मेरी शाम को सेहर करने
मेरे दिन को तुम्हारी रात करने
कभी यूँ भी हो...
की हक़ीक़त से परे एक जहाँ हो
तीन मज़िले मकान की
छत मोहोब्बत, फर्श आसमान हो
कभी यूँ भी हो...
की आँगन की देहलीज़ पर बैठे
इंतज़ार में तुम्हारे जब आँख लगे
तो चढ़ते चाँद के साथ अफ़ाक पर तुम दिखो
कभी यूँ भी हो...
की अल्फ़ाज़ों की भीड़ में
जब एक छोटा सा लम्हा तन्हा मिले,
तो हाथ थमे मेरा, तुम्हार
बोले ख़ामोशी...मुस्काए सन्नाटा
कभी यूँ भी हो...
की तुम को ढुंढाती
मै ख़ुद से मिल जाऊँ कँही
किसी रोशन सी रात में...किसी केसरी सी सुबह में
कभी यूँ भी हो...
बस यूँ ही कभी...
की पहली बारिश में भीगे हम,
बूंदों सी गीली ख्वाहिशें हों और तापनी जलती हो अरमानो की.
कभी यूँ भी हो...
बस यूँ ही कभी...
कभी यूँ भी हो...