Monday, June 7, 2010

पैरों के नीचे से ज़मीन गायब सी लगती है,
आसमा कि छत भी गुम है.
हाथ फैला के देखा, तो उँगलियाँ दीवारों को अब अड़ते नहीं हैं,
चौखट-छज्जे, खिड़की-दरवाज़े...
सब अचानक से लावारिस से मालूम पड़ते हैं.
एक अंजान से खुलेपन का एहसास भी रहता है आज कल...
आज़ाद उड़न भरने को मन फिर भी थोड़ी सी और मोहलत मांगता है...!

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