Friday, June 17, 2011

लुक्का-छुप्पी

लुक्का-छुप्पी का इक खेल सा होता जाता है
कभी उजला सफैद...
तो कभी मट-मैला सा आसमा होता जाता hai...
इन कंबख्त बादलों का दीवानेपन...
मेरी सहर को शाम करता जाता है.

बरस जाओ अब तो ऐ हबीब...मेरी रूह तक भीगना चाहती हूँ मै.

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