Tuesday, August 9, 2011

उस सेहर में...

तकिया मेरा गिला सा था...
उस सेहर में...
जब ख़्वाब मेरा एक टूटा सा था
टुकड़ों को धीरे-धीरे उठाया तो था...
झट से आँगन में दोड़ कर...
खली हाथों से कांच बटोर तो था
सिरहाने रखा था मेरा मलमल का दुप्पटा...
किनार कि सिलाई थोड़ी उधडी...
रंग कुछ फीका सा, कुछ उड़ा सा था
शायद अलविदा कह रही थी मै किसी खास को,
हाथ कस के थमा रखा था मैंने...
लेकिन चेहरा धुंधला ही कुछ दीखता सा था
तकिया मेरा गिला सा था...
उस सेहर में...
जब ख़्वाब मेरा एक टूटा सा था



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