Monday, September 26, 2016

मौहलत

मौहलत ही तो मांगी है तुमसे,
कुच्छ चंद लम्हों की
तो क्या ग़लत है की उनमे मेरी उम्र तमाम हो जाए

चंद रातों की ही तो बात है,
ढलते सूरज की, चढ़ते उस चाँद की सिर्फ़ छोटी सी फर्याद है,
रुक जाओ की सब थम जाएगा तुम्हारे साथ
बस साँसें चलती रहेंगी,
कुच्छ उलझी सी, कुछ सुलझी सी

मौहलत ही तो माँगी है तुमसे,
एक सिंदूरी सी शाम की,
मेरी साँसों मे घुल जाओ तुम जब,
रात की रानी फ़िज़ा मे जैसे

धड़कनो की टिक-टिक पर बस,
सहेर दूर, बहुत दूर जाती रहे
सिरहाने कुच्छ ख्वाबों मे लिपटे,
रात बस बैठी रहे

इजाज़त बस तुम ये दे देना,
की खर्च सकूँ तुम पर मैं
जमा करे हुए तमाम वो लम्हे,

कुच्छ भीगे से लम्हे, कुच्छ सूखे से लम्हे
कुच्छ बिखरे से, कुच्छ संभाले से लम्हे
गुल्लक मे खन्नकते, वो बेशुमार लम्हे

फिर कान्हा ज़रूरत पड़ेगी जमा करी हुई मेरी दौलत की,
ना क़िष्तों की, ना क़तारों की,
ना ही किसी और अम्मानत की

बस तुमसे क़र्ज़ लिया करेंगे
कुच्छ साँसें कभी, कुच्छ आहें कभी
कुच्छ मौहलत कभी, बेपरवाह मोहब्बत कभी


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