कभी मेज़ पे धुल में खांसते,
तो कभी दिवार पे अपने पड़ोसी से गप करता.
कभी भरे बाज़ार में भी आ मिलता है,
मेरे पुराने बटुए के एक कोने से...कंही किसी पुराने नोट में लिपटे.
धुंधला भी पड़ते मैंने उसे देखा है,
जब अलमारी के आखरी खंजे में कपड़ो के नीचे से
किसी भूले-बिसरे लिफ़ाफ़े से कल फिसलता है.
मैंने कल को गेखा है...
बेरंग सा भी जन पड़ता है कभी,
कुछ रंगीन नज़रों और हसीं लम्हों को समेटे.
आज कल तो सुना है, दफ्तरों की मेजों तक पहुँच गया है.
कहीं थम-पिन से लटके...
तो कभी कम्प्यूटर से झांकते.
अजीब तो है ये कल की दुनिया...
ये तस्वीरों की दुनिया...
कुछ थमे लम्हें जंहाँ तुम्हे सदियों की सैर पर ले जाते हैं.
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