आज़ाद परिंदे सा मन
भर रहा उड़न है एक...
पंख फैलाए...
उस ओर, असीम आकाश जहाँ थक कर
ज़मी कि गोद में जा बैठा हो...
धुंधला ही सही, पर क्षितिज दूर जंहाँ पे दीखता हो...
बस उड़ना हो...बिना डोर...बिना रोक कोई...
मेरा मन जब परिंदा होता जाता हो.
आवारा परिंदे भी तो दिन ढलते,
घरोंदों में अपने लौट आते हैं.
शाख़ों पर...कुछ पत्तों के बीच,
कभी माँ कि थपकी में सोते हैं...
तो कभी इश्क़ के आगोश में खो जाते हैं.
बस यंही आ कर के फ़र्क मालूम जान पड़ता है.
घर कहाँ है, ज़हन में अक्सर ये ख्याल उठ कर आता है.
दस्तक किस दरवाज़े पे दूँ,
माहि कोई...किस तरफ रास्ता देखता होगा?
कुछ इसी अफ़रा-तफ़री में,
शाम से सेहर होती जाती है...
और फ़लक पर चाँद फीका पड़ता जाता है.
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