Saturday, April 6, 2013

चल फ़लक़ के उस पार चलें


चल फ़लक़ के उस पार चलें 

सिंदूरी सी शाम जब धीमे-धीमे सुरमई होती होगी 
शीशम दिन-भर का थक कर जब 
अपना बिखेरा समेटता होगा 
वँही मिलूँगा तुमसे मैं, उस सिंदूरी सी शाम में, उस सुरमई सी रात में।

निकल पड़ेंगे बस, दुद्धिया तारों पर पाओं रखते हुए 
घूमते, ढूंढते,
किसी घर लौटते परिंदे से राह पूछते 
जा पहुँचेंगे फ़लक़ के उस पार 

कुछ रौशनी के तारों की चटाई तुम एक बुन लेना 
उधार ले आऊंगा बदली कुछ, मस्नत और तकिये करने 
वंही बैठेंगे तुम और मैं, 
चंदा पे पीठ टिकाए, तारों पर पैर फैलाए।

उँगलियाँ होंगी उँगलियों में उल्छी 
उल्छेंगी नज़रें नज़रों से 
धड़कन भी तो उल्छी होगी, उफनती कभी, कभी मद्धम होगी
और फिर वो लम्हा आएगा, जब निंदिया का साया छाएगा,
नर्म हवा में कोसा कम्बल कभी तुम काँधे से खींचना, 
कभी मैं करवट लेते खींचूंगा 

इसी खिंचा-तानी में,
रूठने मानाने में,
रात कटेगी आँखों-आँखों में,
जब  बैठेंगे तुम और मैं, 
फ़लक़ के उस पार,
चंदा पे पीठ टिकाए, तारों पर पैर फैलाए।

सुरमई सी रात जब, धीमे-धीमे सिंदूरी होती जाएगी।  


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