Tuesday, April 6, 2010

अजनबी...

अजनबी सा शेहेर है ये
अजनबी से हैं रासते,
खुद से अजनबी एक मै घूमता हूँ, इस अजनबी सी भीड़ में

अजनबी सी शक्ल है ये,
अजनबी सा है आइना,
अक्स जिसमे अजनबी है, साया भी गुमनाम है.

चलते-चलते राह में,
कभी अजनबी कोई देता है दुआ.
हाथ बढ़ाकर, गले लगा कर, दो-चार कोस कभी मेरे साथ चला

अलविदा कहने की बरी आइ,
अजनबी एक मोड़ पर,
अजनबी हमराही था मेरा, सफ़र भी वो अंजन था.

यूँही ही चलते जा पहुँचा,
भूले-बिसरे एक चौक पर,
हरा सा एक गुलमोहर खड़ा था, कोसी सी नरम धुप में

एक पता बस मालूम था,
किसी अजनबी के नाम का.
ख़त तो था मेरा हाथ में, चौखट पर बेनाम थी.

3 comments:

  1. AMAZING WORDS DHARA... Let me spread them for u.. This is gonna be my fb status tonight.. do check it out.. :)
    AMIT

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  2. thank you Amit ans Anshu...i am glad you like what i write!

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