तंग हो जाती है जो,
करवट लेते हो तुम जब.
उलझी-उलझी सी भी लगती है कभी
कुछ सर्द सांसो की तरह,
टकरा के तुमसे जो मुझे चूर करती हैं.
सकरी सी इक मुंडेर पे चलते हैं तुम और हम
बचते- बचाते मीलों तक चलना
पीपल कोई दिखे तो पल भर टेका लेना,
कभी पॉंव फिसले तो गीली मिट्टी के निशान
पीछा करते घर तक पहुँच जाते हैं
सूखे कुछ निशान, उस शाम की याद
अक्सर गीली कर जाते हैं
कई बारिशें बीती, कई बार मैंने चौखट को धोया
कम्बक्त! ऐसी छाप छोड़ी है की आज भी
चौखट के बहार, उस सूखे निशान
पे जब भी पैर रखा है,
पीपल की ठंडी हवा ने मेरी जुल्फों को छुआ है...
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