एक सफ़ेद चादर...
जो चार पायों के बीच
कांहीं सिकुडी पड़ी है.
गोर से देखो तो सिलवाते भी साफ़ मालूम पड़ती हैं.
इतने शोर के बीच यंहन एक अजीब सा संता है.
दो जिस्म, दो जाने, दो रूहें...
आज भी यंहन रोज़ एक होती हैं.
मेरी आखों में कुछ चुभा,
जब मोहोबत को इस तरह सरेआम नुमाइश पे पाया.
मन में कांहीं एक चीख उठी,
जब उस सफ़ेद चादर में दफानी उन तमाम आहों को महसूस किया.
चाँद की जवानी भी इसकी हर सिलवट पर लोटती है.
उन सर्द हवनों में यंहन दबे शोलों की आग कुछ और बड़ती है.
मेह्फिलिएँ लोग आज भी यंहन लगते हैं...
इस मंज़र को यह लोग...ताज महल कहा करते हैं.
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